गगन चूमती ये मीनारें, आपस में बतियाती हैं।
मानव-मन की घोर लालसा, क्या-क्या खेल रचाती है।।
शुद्ध हवा, पानी, भूमि को, दूषित-रोगी बना दिया।
वन-उपवन को खंडित करके, कंकड़-कानन खड़ा किया।।
रोती रोती कुदरत माई, नर से आज निभाती है।
गगन चूमती ये मीनारें, आपस में बतियाती हैं।
जड़ से जुड़ना भूल गया और मानव नभ में उडा़ फिरे।
टिके समय का एक थपेडा़, औंधे मुंह गिर पड़ा मिले।।
जहरीली भूमि भी देखो, विष की फसल उगाती है।
गगन चूमती ये मीनारें, आपस में बतियाती हैं।
गगन चूमती ये मीनारें, आपस में बतियाती हैं।
मानव-मन की घोर लालसा, क्या-क्या खेल रचाती है।।
-