बगिया निराली
ऊब रही नित देख देख
टोकरी में वही खेप
वही झींगा,वही तुरई,
रोज भिंडी सुहाती नहीं,
बैंगन परवल,कुंदरु-मुंदरु,
पका पका भी क्या करूं?
बेमन से सब चख भर लेते,
थाली यूं ही खिसका देते।
जोमाटो स्विग्गी में जाकर,
पकी पकाई मंगा लेते।
बेचारे कुम्हलाने लगे,
दीन नजर हैं आने लगे।
खान गुणों की होकर भी
नकारे हैं जाने लगे।
मेंने भी कर दी हड़ताल,
ले बैठी उनको भर थाल।
कल्पना के रंग भर कर,
करीने से सजा संवार कर,
अनुपम तस्वीरें बना डाली,
सब्जियों कि देखो मैंने,
बगिया निराली बना डाली।
खिल उठे उनके रंग-रूप,
लगी जागने सबकी भूख।
-रश्मि सिंह