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कविता

छूटा वो घर , वो आँगन ;रीना सिन्हा

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ब्यूरो हिमालयन अपडेट 7018631199 | March 27, 2022 09:35 AM
रीना सिन्हा

बेघर

जानें क्या क्या टूट गया
सबकुछ ही तो छूट गया

छूटा वो घर , वो आँगन
टूटा वो तुलसी का चौरा
जल गई छोटे छोटे
फूलों वाले परदों से सजी
छोटी सी बैठक
ढह गया गुलज़ार बसेरा

पल भर में उजड़ गए
वो बाग बगीचे , वो क्यारी
जिसे पीढ़ीयों से सींचा था
आज हुआ वीराना
उखड़ गईं जड़ें
जिनसे साँसों का नाता था
हो गया सब बेगाना

कैसे निकल पड़े थे
अपनें शहर से
अपने ही घर से
दहशत और हड़बड़ी में
कुछ पलों में समेटना था
जो इक उम्र से सहेजा था
क्या सिमट पाता है
चंद लम्हों में सबकुछ ?
क्या क्या साथ ले जाते ?
क्या सचमुच सब समेट पाते ?

कैसे समेट पाते
वो ज़मीन के टुकड़े
वो ख़्वाब वो सपनें
वो गुड़िया वो खिलौनें
वो मौसम
वो सर्द रातें
चीड़ देवदार के पीछे ढलती
वो सुनहली शाम
वो झील का मंजर
वो शिकारा,
अब वहाँ कुछ भी न था हमारा

थी हर ओर भगदड़
इक खौफ़ इक दहशत
दिल दहलाती हुई चीखे
माँ बाप को ढूंढते
वो बेघर बिलखते बच्चे
जाए तो कहाँ जाए
देखे भी तो किधर देखे
जिंदा जलती चीखती
भागती परछाइयों से लोग
जबरन घसीटी जाती लड़कियाँ
कत्ल होते जवान खून
पथराई आँखों से सब
देखती बूढ़ी आँखें
होकर के मजबूर

सपनों में आज भी
जाने क्यूँ दिखता है उस
अधजले मकान का खंडहर
उन यादों के खंडहर
को दिल मे बसाए 
भटकते रहे सालों दर बदर
खाली हाथ , सूनी आँखें
फिर से वहीं वापस लौटने की
राह तकते हुए

आज भी नींद में
बड़बड़ाती है माँ
कहती है ...मैं चूल्हा
जलता ही छोड़ आई ,
कहीं घर को आग न लग जाये...
अब कौन समझाए
उन बूढ़ी आँखों को,
की चूल्हे के साथ साथ
वो घर तो कब का जल गया
वो शहर जो कभी
प्यारा वतन था अपना
इक पल में ही
अनजान बन गया.....

 ( स्वरचित )

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