योगवशिष्ठ भारतीय संस्कृति के इतिहास का महत्वपूर्ण ग्रंथ है I योग वशिष्ट की रचना के समय के बारे में इतिहासकारों के विभिन्न मत है किंतु अधिकांश लोग यह मानते हैं कि यह छठी और सातवीं शताब्दी पूर्व रचित हुआ है। योगवशिष्ठ की उत्पत्ति के बारे में विचार हैं लेकिन सबसे स्वीकृत दृष्टिकोण यह है कि संपूर्ण भगवान ब्रह्मा के निर्देशन में महर्षि वाल्मीकि द्वारा किए गए लेकिन यहां ब्रह्मा का अर्थ है परम दिव्य शक्तिI
शक्ति योग प्रणाली का प्रारंभिक आधार हैं। एक है ज्ञान शक्ति और दूसरी क्रिया शक्ति है क्योंकि ज्ञान को शाश्वत माना जाता है इसलिए यह यह विचार देता है कि योग योगवशिष्ठ हमारे ऋषियों के साथ शाश्वत था बाद में इसे महर्षि वाल्मीकि ने रामायण से पहले संकलित किया था, यह भी एक स्थानीय मान्यता है कि रामायण भगवान राम के जन्म से बहुत पहले लिखी गई थी।
कुछ दार्शनिकों का मानना है कि आपका वशिष्ठ 13वीं या 14वीं शताब्दी में संकलित किया गया था लेकिन इसके समर्थन में बहुत कम प्रमाण हैं। योग विशिष्ट ने गुरु शिष्य परम्परा के विचार को भी प्रतिपादित किया क्योंकि भगवान राम गुरु वशिष्ठ के शिष्य बने, बाद में गुरु ने उन्हें मोक्ष की प्राप्ति के लिए आध्यात्मिक पथ पर निर्देशित किया। योगवशिष्ठ गुरु शिष्य परंपरा के महत्व और दोनों के कर्तव्यों का भी वर्णन करते हैं।
गुरु शिष्य एक अनूठा रिश्ता है जहां गुरु की क्षमता और एक शिष्य की योग्यता इस परंपरा के लिए एक महत्वपूर्ण कारक बनती है। गुरु हमेशा अच्छे शिष्य की तलाश में रहते हैं और उन्हें दीक्षा देते हैं। गुरु शिष्य परंपरा हमारे सनातन पद्धति का एक महत्वपूर्ण अंग है जिस प्रकार गुरु का ज्ञानी होना व सिद्धि प्राप्त होना आवश्यक है उसी प्रकार शिष्य में भी ज्ञान की तत्परता और कुछ मूलभूत गुण होने आवश्यक है गुरु शिष्य परंपरा योग क्रियाओं को शाश्वत रखने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। श्रुति और स्मृति पर आधारित गुरु शिष्य परंपरा चिरकाल से चली आ रही है प्रारंभिक काल में किसी भी गुरु मंत्र मात्रा या योगिक क्रियाओं को लिखना वर्जित था गुरु और शिष्य केवल श्रुति और स्मृति पर ही अपनी सभी योग विधाएं चलाते थे जो कि आज कल भी कुछ योग परंपराओं में पाई जाती हैं, कारण यह है कि कोई भी पुस्तक या लिखित विवरण किसी कुपात्र को ना मिल पाए और सुपात्र को ही गुरु अपने ज्ञान दीक्षा से परिपूर्ण करें। किंतु वर्तमान में यह सभी क्रियाएं व मंत्र लिखित रूप में कर दिए गए ताकि जनमानस को उसका लाभ प्राप्त हो मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर यह कहना चाहूंगा कि गुरु और शिष्य परंपरा हमारे समाज का अभिन्न अंग है और हमें इस और बड़ी गहनता से विचार करना चाहिए ताकि हमारी भारतीय सभ्यता व संस्कृति कि कुछ सेवा हो सकेI
क्रमशः