बचपना बरकरार रहे
बचपन खुलकर फिर जी रहा,
कलियों से फूल बन खिल रहा।
खिलखिलाई हैं संग उनके हवाएँ,
कितनी खुशनुमा लग रही फिज़ाएँ।
रंग-बिरंगे बस्तों में सजने लगीं फिर,
ज़िल्दों में करीने से मढ़ने लगीं फिर,
किताबें भी खुल के सांसें ले रहीं,
कॉपियाँ भी रंगीन आब होने लगीं।
भूल गये थे बचपना मोबाइल तले,
फिर उन आँखों में शरारत पले।
डेस्क बेंच की धूल झड़ी फिर से,
बच्चों के संग वे भी लगे दमकने ।
अब ये मंदिर यूं ही गुलज़ार रहे,
यही कामना बचपना बरकरार रहे।