सदियों से धरा का सजा रंगमंच है,
आतुर है मेघ के पुष्प बरसने को ।
उतर रही है बरखा रानी संवर कर,
रंगमंच बनी धरा पर नृत्य करने को।
इन बूंदों को देख एक तलब है जागी,
हाथ में हो एक गर्म चाय की प्याली।
जीवन के इस अभिनव कलरव में,
चाय तुम अकेले में भी हो अभिन्न साथी।
सुनीता श्रीवास्तव "जागृति" * रांची*